Friday, November 30, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (४०वीं कड़ी)


      दसवां अध्याय 
(विभूति-योग -१०.८-१८



मैं सम्पूर्ण सृष्टि का कारण
मुझसे ही सब कुछ है चलता.
ऐसा लेकर भाव है ज्ञानी 
प्रेम पूर्वक मुझको है भजता.  (१०.८)

मुझमें मन को स्थिर करके 
जीवन मुझे हैं अर्पण करते.
मेरा ज्ञान परस्पर दे कर 
वे मेरे वर्णन में ही हैं रमते.  (१०.९)

है आसक्त चित्त मुझमें ही 
मुझ को प्रेम पूर्वक भजते.
देता उनको बुद्धि योग मैं,
जिससे प्राप्त मुझे वे करते.  (१०.१०)

करने को मैं अनुग्रह उन पर
आत्म भाव में स्थिर रह कर.
अज्ञान अँधेरा नष्ट हूँ करता
ज्ञान रूप का दीप जला कर.  (१०.११)

अर्जुन 

आप परब्रह्म, परम धाम हैं,
आप सनातन, परम पवित्र हैं.
दिव्य, अजन्मा, आदि देव हैं,
कृष्ण आप सर्वत्र व्याप्त हैं.  (१०.१२)

सभी ऋषि व देवर्षि नारद
व्यास, असित, देवल हैं कहते.
वही तत्व आपका माधव 
आप स्वयं भी मुझको कहते.  (१०.१३)

हे केशव! जो आप कह रहे,
उस सबको हम सत्य मानते.
किन्तु आपके इस वैभव को 
देव या दानव नहीं जानते.  (१०.१४)

प्राणिजगत के सृजक व स्वामी,
देवाधिदेव, जगत के पालक.
अपने आप को अपने द्वारा 
केवल स्वयं जानते हैं हे माधव!  (१०.१५)

दिव्य विभूतियाँ हैं जो आपकी
केवल आप ही हैं कह सकते.
जिनसे लोक व्याप्त है करके
आप हैं इसमें स्थिर रहते.  (१०.१६)

चिंतन काल में हे योगेश्वर!
कैसे पहचानूँ मैं आपको?
किन किन स्वरुप भावों में
ध्यान करूँ मैं सदा आपको?  (१०.१७)

स्व विभूतियों और योग को
विस्तारपूर्व कहो तुम मुझ को.
तृप्ति नहीं होती है मन की 
सुनकर इन अमृत वचनों को.  (१०.१८)

कैलाश शर्मा 

Saturday, November 24, 2012

कैक्टस के फूल

नहीं सोचा था कभी 
आँगन की हरी भरी बगिया में 
छा जायेगा मरुथल 
और उग आयेंगे कैक्टस। 

बगिया की सोच 
शायद होगी सही, 
नहीं रही होगी आशा 
पानी देने और 
देखभाल करने की
इन कमजोर 
और कांपते हाथों से,
और सौंप दिया आँगन 
मरुथल के हाथों में 
जहां उगते सिर्फ कैक्टस 
जिन्हें नहीं ज़रूरत 
किसी देखभाल की। 

आज देखा आँगन में 
कैक्टस पर खिला 
एक सुंदर फूल, 
छूने को बढ़ी उंगलियों में 
चुभ गया 
कैक्टस का काँटा 
पर नहीं हुआ दर्द,
आदत हो गयी थी 
उंगलियों को
काँटों से बिंधने की 
गुलाबों को छूने पर।

कैलाश शर्मा 

Saturday, November 17, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (३९वीं कड़ी)


      दसवां अध्याय 
(विभूति-योग -१०.१-७


श्री भगवान 

फिर भी सुनो परम वचन तुम   
सुन कर प्रिय तुमको है लगता.
भक्त तुम्हारे जैसे के हित को 
पार्थ मैं तुमको वचन यह कहता.  (१०.१)

मेरा प्रादुर्भाव हैं जानें 
न ही देव या महर्षि गण.
देव और महर्षियों का
मैं ही होता हूँ सब कारण.  (१०.२)

मुझे आदि अजन्मा माने,
परमेश्वर लोकों का जानता.
पूर्ण मोह रहित हो जन में,
मुक्त है पापों से हो जाता.  (१०.३)

क्षमा, सत्य, इन्द्रिय पर संयम,
बुद्धि, ज्ञान, सम्मोह हीनता.
सुख और दुःख, जन्म व मृत्यु,
भय और अभय, अहिंसा,समता.  (१०.४)

यश अपयश तप दान संतुष्टि 
अलग अलग ये भाव हैं होते.
भाव ये सब प्राणी में अर्जुन 
मेरे द्वारा ही उत्पन्न हैं होते.  (१०.५)

सप्तर्षि व चार पूर्व मनु भी 
जिनसे सृजन हुआ लोकों का.
वे सब मानस भाव हैं मेरे 
मुझमें स्थित भाव था उनका.  (१०.६)

मेरी इस विभूति व योग का 
जो जन तत्व समझ है पाता.
इसमें नहीं है संशय अर्जुन
अविचल योगयुक्त हो जाता.  (१०.७)

          ......... क्रमशः

कैलाश शर्मा 

Sunday, November 11, 2012

बहुत कठिन बनना राम


बहुत आसान है
उंगली उठाना,
लेकिन बहुत कठिन  
बनना राम.

क्या महसूस कर सकते हो
उस दर्द को
जो जिया होगा राम ने,
क्या बीती होगी उन पर,
कितना रोया होगा अंतस,
एक धोबी के कहने पर
त्यागने में
उस सीता को
जिसको किया था प्रेम
अपने से ज्यादा
और सहे थे कितने कष्ट
मुक्त करने को 
रावण की क़ैद से.

लेकिन राम नहीं थे
एक स्वेच्छाचारी राजा
जो दबा देते विरोध की आवाज
एक धोबी की.
वह थे एक सच्चे जन नायक
जिनको स्व-हित से सर्वोपर था
जन हित और जन मत,
बहुमत नहीं था संबल
अपनी बात सही सिद्ध करने का
और दबाने को स्वर
अंतिम व्यक्ति का.
दबाया अपना दर्द अंतस में
और त्यागा सीता को
जनमत का मान रखने.

त्याग सकते थे राज्य
देने साथ सीता का,
लेकिन नहीं था स्वीकार 
अपने सुख के लिये 
भागना उत्तरदायित्व 
और क्षत्रिय धर्म से.

हे राम!
तुम्हारी महानता का आंकलन
नहीं संभव,
सोने को नहीं तोला जाता
लोहे की तराज़ू में
पत्थर के बांटों से.

कैलाश शर्मा 

Thursday, November 08, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (३८वीं कड़ी)


            नौवां अध्याय 
(राजविद्याराजगुह्य-योग-९.२९-३४


नहीं प्रेम या द्वेष किसी से
मैं समभाव हूँ सब में रखता.
वे मुझमें हैं और मैं उन में 
भक्तिपूर्वक मुझे जो भजता.  (९.२९)

घोर दुराचारी व्यक्ति भी 
अनन्य भाव से मुझे पूजता.
उसे श्रेष्ठ ही समझो अर्जुन
दृढनिश्चय है वह जन रखता.  (९.३०)

शीघ्र धर्म आत्मा वह होकर 
परम शान्ति प्राप्त है होता.
निश्चय रूप से जानो अर्जुन,
भक्त मेरा न नष्ट है होता.  (९.३१)

चाहे स्त्री, वैश्य, शूद्र हों,
निम्न कुलों में जन्म हैं पाया.
जो मेरा आश्रय लेते हैं,
उसने परम गति को है पाया.  (९.३२)

राजर्षि, ब्राह्मणों का क्या कहना
पुण्य कर्म से वे पाते हैं मुझको.
अनित्य, दुखमय संसार में आकर
अतः भजो अर्जुन तुम मुझको.  (९.३३)

स्थिर मन से भक्त बनो तुम,
मेरी पूजा करो, मुझे नमन कर.
कर लोगे तुम प्राप्त मुझे ही 
मुझमें युक्त एकाग्र चित्त कर.  (९.३४)

**नौवां अध्याय समाप्त**

                   .....क्रमशः

कैलाश शर्मा 

Saturday, November 03, 2012

आख़िरी लहर


सागर की लहरें
आती हैं किनारे
देती हैं शीतलता
भिगोकर पैरों को 
कुछ पल को,
लेकिन जब लौटती हैं 
ले जाती हैं कुछ रेत
पैरों के नीचे से
और लगता है खालीपन
पैरों के नीचे.

खिसक रही है 
ज़िंदगी की रेत
धीरे धीरे हर पल
और महसूस होता है 
खालीपन जीवन में
वक़्त की हर लहर के 
जाने के बाद.

बस इंतज़ार है 
उस आख़िरी लहर का
जो बहा ले जाये 
रेत के आख़िरी कण 
और फ़िर न बचे 
कुछ बहने को
लहरों के साथ 
पैरों के नीचे से.

कैलाश शर्मा